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यथा॒ पूर्वे॑भ्यो जरि॒तृभ्य॑ इन्द्र॒ मय॑ इ॒वापो॒ न तृष्य॑ते ब॒भूथ॑। तामनु॑ त्वा नि॒विदं॑ जोहवीमि वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā pūrvebhyo jaritṛbhya indra maya ivāpo na tṛṣyate babhūtha | tām anu tvā nividaṁ johavīmi vidyāmeṣaṁ vṛjanaṁ jīradānum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यथा॑। पूर्वे॑भ्यः। ज॒रि॒तृऽभ्यः॑। इ॒न्द्र॒। मयः॑ऽइव। आपः॑। न। तृष्य॑ते। ब॒भूथ॑। ताम्। अनु॑। त्वा॒। नि॒ऽविद॑म्। जो॒ह॒वी॒मि॒। वि॒द्याम॑। इ॒षम्। वृ॒जन॑म्। जी॒रऽदा॑नुम् ॥ १.१७६.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:176» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:19» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रकृत विषय में योग के पुरुषार्थ का वर्णन किया जाता है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) योग के ऐश्वर्य का ज्ञान चाहते हुए जन ! (यथा) जैसे योग जानने की इच्छावाले (पूर्वेभ्यः) किया है योगाभ्यास जिन्होंने उन प्राचीन (जरितृभ्यः) योग गुण सिद्धियों के जाननेवाले विद्वानों से योग को पाकर और सिद्ध कर होते अर्थात् योगसम्पन्न होते हैं वैसे होकर (मयइव) सुख के समान और (तृष्यते) पियासे के लिये (आपः) जलों के (न) समान (बभूथ) हूजिये और (ताम्) उस विद्या के (अनु) अनुवर्त्तमान (निविदम्) और निश्चित प्रतिज्ञा जिन्होंने की उन (त्वा) आपको (जोहवीमि) निरन्तर कहता हूँ ऐसे कर हम लोग (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) दुःखत्याग और (जीरदानुम्) जीवदया को (विद्याम) प्राप्त हों ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - जो जिज्ञासु जन योगारूढ़ पुरुषों से योगशिक्षा को प्राप्त होकर पुरुषार्थ से योग का अभ्यास कर सिद्ध होते हैं, वे पूर्ण सुख को पाते और जो उत्तम योगियों का सेवन करते, वे भी सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥इस सूक्त में विद्या, पुरुषार्थ और योग का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ छिहत्तरवाँ सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रकृतविषये योगपुरुषार्थः प्रोच्यते ।

अन्वय:

हे इन्द्र त्वं योगजिज्ञासवः यथा पूर्वेभ्यो जरितृभ्यो योगं प्राप्य साधित्वा सिद्धा भवन्ति तथा भूत्वा मयइव तृष्यत आपो न बभूथ। तां योगविद्यामनुवर्त्तमानं निविदं त्वा जोहवीमि। एवं कृत्वा वयमिषं वृजनं जीरदानुं च विद्याम ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) (पूर्वेभ्यः) कृतयोगाभ्यासपुरःसरेभ्यः (जरितृभ्यः) योगगुणसिद्धीनां वेदितृभ्यः (इन्द्र) योगैश्वर्यजिज्ञासो (मयइव) सुखमिव (आपः) जलानि (न) इव (तृष्यते) पिपासवे (बभूथ) भव (ताम्) (अनु) (त्वा) (निविदम्) निश्चितप्रतिज्ञम् (जोहवीमि) भृशं ह्वयामि (विद्याम) (इषम्) इच्छासिद्धिम् (वृजनम्) दुःखत्यागम् (जीरदानुम्) जीवदयाम् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - ये योगारूढेभ्यो योगशिक्षां प्राप्य पुरुषार्थेन योगमभ्यस्य सिद्धा जायन्ते तेऽलं सुखं लभन्ते। ये तान् सेवन्ते तेऽपि सुखं प्राप्नुवन्ति ॥ ६ ॥अस्मिन् सूक्ते विद्यापुरुषार्थयोगवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेदितव्या ॥इति षट्सप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे जिज्ञासू लोक योगारूढ पुरुषांकडून योगशिक्षण प्राप्त करून पुरुषार्थाने योगाचा अभ्यास करून सिद्ध होतात ते पूर्ण सुख प्राप्त करतात व जे उत्तम योग्याचा स्वीकार करतात तेही सुख प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥